Friday 30 September 2016

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GURU GORAKHNATH PARAMPRA

नाथ संप्रदाय की परंपरा में गुरु गोरक्षनाथ ने मध्यकाल में सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा अभियान चलाया। उनके अभियान में हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों को स्थान मिला। उस समय तो कई मुस्लिम भी नाथ संप्रदाय में दीक्षित हुए और सिद्ध के रूप में प्रतिष्ठा पाई। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े राजाओं ने इनसे दीक्षा प्राप्त की। अपने विपुल वैभव को त्याग कर ऐसे लोगों ने आत्मोप्लब्धि प्राप्त की तथा जनकल्याण के कार्य में अग्रसर हुए…

GORAKH NATH GOD OF NATH SAMAJ 

नाथ संप्रदाय का भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के संरक्षण में अद्वितीय योगदान है। लंबे समय से विदेशी दासता झेल रहे समाज में इस संप्रदाय ने नई स्फूर्ति पैदा की और ऊंच-नीच की भावना से परे जाकर आध्यात्मिक तत्व को समझने की दृष्टि पैदा की। आद्य शंकराचार्य इस संप्रदाय के आदि पुरुष माने जाते हैं। इसको वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ को भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। तंत्र और योग ग्रंथों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथाआें का विशद वर्णन हुआ है। श्री गोरक्षनाथ को वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत माना जाता है। उन्होंने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महाशक्तियों के विकास करने का उपदेश दिया और हठयोग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने का जनसमाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया। श्री गोरक्षनाथ ने योग संबंधी अनेकों ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे, जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानंद प्राप्त किया तथा जनकल्याण के लिए अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए। श्री गोरक्षनाथ ने सांसारिक मर्यादा की रक्षा के लिए श्री मत्स्येंद्रनाथ को अपना गुरु माना। ऐसी मान्यता है कि चिरकाल तक इन दोनों में शंका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। नाथपंथ का योगी संप्रदाय अनादि काल से चला आ रहा है। बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुआ। वाममार्गी सिद्धांत बहुत ऊंचे थे, किंतु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धांतों की वास्तविकता को नहीं समझ पा रहे थे और इस कारण पथभ्रष्ट हो रहे थे। इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ संप्रदाय को प्रचलित किया और तात्कालिक 84 सिद्धों में सुधार की प्रक्रिया को जन्म दिया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे। यह योगी संप्रदाय बारह पंथो में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पंथी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पंथी और पागल। इन बारह पंथ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रांतों में इस योगी संप्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं। श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल में बहुत प्रतिष्ठित था और अब भी नेपाल के राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में स्वीकार करते हैं। वहां पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहां तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहां के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल,गांधार, सिंध, बलूचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊंचा मान पाया था। इस संप्रदाय में कई भांति के गुरु होते हैं जैसे कि चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि। श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन,कान फाड़ना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाड़ने के प्रति तत्पर होने का मतलब कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य के प्रति अपनी आस्था प्रकट करना है।  श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों, शिष्यों के लिए एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फड़ाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता है। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को ‘औघड़’ कहते है और इसका आधा मान होता है। भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाए जाते हैं। यह संप्रदाय अवधूत संप्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है- स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित जैसा कि  सिद्ध सिद्धांत पद्धति में लिखा हैः-
‘सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।’


अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है, वह अवधूत है। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।योगी लोग अपने गले में काले ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे ‘सेली’ कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है। नाथ संप्रदाय का संबंध शैव मत से होता है और यह आराध्य के रूप में भगवान शिव की आराधना करते हैं। नाथ संप्रदाय के अनुयायियों ने समय-समय पर देश और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देशभक्ति की उत्कृष्ट भावना को भी अभिव्यक्त किया है।


नाथ संप्रदाय और बाबा बालकनाथ

बाबा बालकनाथ हिमाचल और पंजाब प्रांत के सर्वाधिक पूज्य सिद्ध हैं। नाथ संप्रदाय से उनके संबंधों के बारे में परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं लेकिन लोक कथाओं में इस बात का पर्याप्त प्रमाण मिलता है कि बाबा बालकनाथ का संबंध नाथ संप्रदाय से था। बाबा बालक नाथ की माता का नाम यशोदा और पिता का नाम दुर्गादत्त था। वे भार्गव ब्राह्मण थे। बाबा बालकनाथ का झुकाव बचपन से ही वैराग्य की ओर था। किशोरवय होते-होते उनकी प्रसिद्धि एक चमत्कारी सिद्ध के रूप में हो गई थी।  एक बार उन्हें गुरु गोरखनाथ जी के दर्शन हुए और वह उनके पीछे चलने वाले चेलों की लंबी भीड़ देखकर हैरान रह गए। उन चेलों में कुछ राजकुमार भी थे। बाबा बालकनाथ जी ने गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु बनाने की सोची। लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि गुरु गोरखनाथ किसी बालक को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। बाबा बालकनाथ जी जब शिष्य बनने की कामना के साथ गुरु गोरखनाथ के पास गए तो उन्होंने, उन्हें शिष्य बनाने से इनकार कर दिया और आगे चलकर कभी शिष्य बनाने का आश्वासन दिया। एक दिन गुरु गोरखनाथ जी उस नगरी आए जिस जगह बाबा बालकनाथ जी विराजमान थे,तब बाबा बालकनाथ ने उनके साथ चमत्कार करने का विचार किया और सोचा कि अगर वह मुझे पकड़ने में कामयाब हो गए तो मैं इन्हें अपना गुरु मान लूंगा। यह सोचकर बाबा बालकनाथ जी जब उनसे मिलने गए और शिष्य बनाने के लिए प्रार्थना की तो पहले गुरु गोरखनाथ जी ने उन्हें समझाया और कहा नाथ पंथ बहुत कठिन है,तलवार की धार पर चलने के समान है। लेकिन जब बाबा नहीं माने तो गोरक्षनाथ उन्हें शिष्य बनाने के लिए राजी हो गए। जब वह उनका कर्ण छेदन करने वाले थे तभी बाबा बालकनाथ जी हवा में उड़ गए। यह देखकर गुरु गोरखनाथ जी ने अपनी बाईं भुजा को बड़ा किया और बाबा बालकनाथ जी को पकड़ कर नीचे उतार लिया और कहा- यदि कोई और शंका मन में हो तो वह भी निकाल लो। मैंने तुम्हे भागने का मौका दिया था पर तुम नहीं भाग सके। अब जिसे याद करना हो कर लो अब तो तुम्हें शिष्य बनना ही पड़ेगा। यह सुनकर बाबा बालकनाथ जी ने कहा- गुरुदेव! आपके सिवा कोई याद करने लायक नहीं है। आप चाहे बंधन में रखकर कर्ण छेदन करें या बिना बंधन के बिना। इतना सुनकर गुरु गोरखनाथ जी ने उन्हें बंधनों से मुक्त कर दिया।

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