Friday 30 September 2016

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ABOUT GORAKHNATH JI


नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।

ABOUT 

1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए।सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।
8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।
10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे। विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था।
८४ सिध्धोँ मेँ जिनकी गणना है, उनका जन्म सँभवत, विक्रमकी पहली शती मेँ या कि, ९वीँ या ११ वीँ शताब्दि मेँ माना जाता है। दर्शन के क्षेत्र मेँ वेद व्यास, वेदान्त रहस्य के उद्घाटन मेँ, आचार्य शँकर, योग के क्षेत्र मेँ पतँजलि तो गोरखनाथ ने हठयोग व सत्यमय शिव स्वरूप का बोध सिध्ध किया ।
कहा जाता है कि, मत्स्येन्द्रनाथ ने एक बार अवध देश मेँ एक गरीब ब्राह्मणी को पुत्र - प्राप्ति का आशिष दिया और भभूति दी !
जिसे उस स्त्री ने, गोबर के ढेरे मेँ छिपा दीया !--
१२ वर्ष बाद उसे आमँत्रित करके, एक तेज -पूर्ण बालक को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने जीवन दान दीया और बालक का " गोरख नाथ " नाम रखा और उसे अपना शिष्य बानाया !
- आगे चलकर कुण्डलिनी शक्ति को शिव मेँ स्थापित करके, मन, वायु या बिन्दु मेँ से किसी एक को भी वश करने पर सिध्धियाँ मिलने लगतीँ हैँ यह गोरखनाथ ने साबित किया।
उन्होंने हठयोग से, ज्ञान, कर्म व भक्ति, यज्ञ, जप व तप के समन्वय से भारतीय अध्यात्मजीवनको समृध्ध किया।--
गोरखनाथ जी की लिखी हुइ पुस्तकेँ हैँ , गोरक्ष गीता, गोरक्ष सहस्त्र नाम, गोरक्ष कल्प, गोरक्ष~ सँहिता, ज्ञानामृतयोग, नाडीशास्त्र, प्रदीपिका, श्रीनाथसूस्त्र,हठयोग, योगमार्तण्ड, प्राणसाँकली, १५ तिथि, दयाबोध इत्यादी ---
कालातीत महायोगी गुरु गोरखनाथ
आदिनाथ एक पौराणिक नाम है ! आदिनाथ शायद उद्गम हैं ! जैन आदिनाथ को अपना प्रथम तीर्थंकर
मानते हैं ! ऋषभ देव और आदिनाथ दोनो उन्ही के नाम हैं ! जिनसे शुरुआत हुई ! इसलिये आदिनाथ हैं !
ऋग्वेद मे भी अति सम्मान पुर्वक आदिनाथ और ऋषभ देव जी का वर्णन मिलता है ! हिन्दु परम्परा ने भी
उनको पूरा सम्मान दिया है ! तान्त्रिक भी यह मानते हैं कि आदिनाथ से ही तन्त्र की शुरुआत हुई ! और
समस्त सिद्ध योगी भी यही मानते हैं कि आदिनाथ उनके प्रथम गुरु हैं ! ऐसा दिखाई देता है कि इस
देश की सारी परम्पराएं इस महान व्यकतित्व से ही निकली हैं !
पर देखिए ... गुरु गोरख क्या कहते हैं ?
आदिनाथ नाती मछिन्द्रनाथ पूता !
निज तात निहारै गोरष अवधूता !!

अब देखिये - जिस आदिनाथ को उद्गम माना गया है उसको गोरख अपना नाती बता रहे हैं और अपने ही गुरु
मछिन्द्रनाथ जी को अपना पूत यानि कि बेटा बता रहे हैं ! और अपने बेटे बेटियों को, अपने नाती पोतों को
देख कर मैं बडा प्रशन्न हूं !
लगता है गुरु गोरख नाथ जी कुछ खिसक गये हैं ? पर नही ! असल मे इस तरह के वचन उल्ट्बासी कहे
जाते हैं और इनका सबसे ज्यादा उपयोग या कहे सर्व प्रथम उपयोग कबीर साहब ने किया है !
गोरख वचन बहुत प्रिय हुये हैं ! और लोक जीवन मे भी इनको बडा ऊंचा स्थान मिला है ! गोरख
जब बोलते हैं तो उसी ऊंचाई से बोलते हैं जिस ऊंचाई से कृष्ण गीता मे बोलते हैं ! यानी जिसको
भी ज्ञान हो गया ! फ़िर वो स्वयम ही परमात्मा हो गया ! फ़िर बूंद समुद्र मे समा गई ! अब कौन गुरु
और कौन चेला ! सारे भेद खत्म हो गये ! गीता मे कृष्ण कहते हैं की, हे अर्जुन तू मेरी शरण आ जा !
मैं पर काफ़ी जोर है ! क्योंकी ये परमात्मा कृष्ण बोल रहे हैं ! ऐसे ही गोरख कहते हैं :-
अवधू ईश्वर हमरै चेला, भणीजैं मछीन्द्र बोलिये नाती !
निगुरी पिरथी पिरलै जाती, ताथै हम उल्टी थापना थाती !!
वो कह रहे है कृष्ण के जैसे ही -- हे अवधूत स्वयम ईश्वर तो हमारे चेला हैं और मछिन्द्र तो नाती
यानी चेले का भी चेला है ! हमे गुरु बनाने की जरुरत नही थी लेकिन अज्ञानी लोग बिना गुरु के ही
सिद्ध बनने का नाटक नही कर ले ! इस लिये मछिन्द्र को हमने गुरु बना लिया जो वस्तुत: उल्टी स्थापना
करना है , क्योन्की खुद मछिन्द्र नाथ हमारे शिष्य हैं !
असल मे जिनको भी ज्ञान हो गया उसकी प्रतीति ऐसी ही होती है ! वह ब्रह्म स्वरुप हो गया ! वह
खुद ब्रह्म हो गया अब सब कुछ उसके बाद है ! वह समयातीत हो गया ! काल और क्षेत्र के बाहर
हो गया ! तो इन ऊंचाइयो पर थे गुरु गोरखनाथ ! इन्ही गुरु गोरख , कबीर और रैदास जी का
एक किस्सा हमको एक महात्मा ने सुनाया था ! वो हम आपको अगले भाग मे सुनायेन्गे ! और आप
कबीर के बारे मे तो अच्छी तरह जानते होंगे और उनकी सिद्धियों के बारे मे भी जानते होंगे !
पर शायद रैदास जी की इन विशेषताओं का आपको मालूम नही होगा ! इन तीनो ज्ञानीयों की मुलाकात
का ये एक मात्र दृष्टान्त सुनने मे आया है ! जो हम आपको सुनाना चाहेन्गे ! और आप दूसरो की
तरह रैदास जी के नाम पर नाक भों मत चढाना ! बडे सिद्ध पुरुष हुये हैं ! और जब राज रानी
मीरा कह्ती हैं कि " गुरु मिल्या रैदास जी " तो सब बाते खत्म ! मीरा जैसी भक्त का गुरु कोई
साधारण मनुष्य नही हो सकता !
तो इन्तजार किजिये, इन तीनो महान संतो के मिलन और चम्तकारिक घटनाओं के बारे मे जानने का !

महायोगी गोरखनाथ और उनका योग-मार्ग

महात्मा गोरखनाथ अपने समय के एक बहुत प्रसिद्ध योगी हो गये हैं। वैसे योनाभ्यास करने वालों की भारतवर्ष में कभी कमी नहीं रही, अब भी हजारों योगविद्या के जानकर और अभ्यासी इस देश में मिल सकते हैं, पर गोरखनाथ योगविद्या के बहुत बड़े आचार्य और सिद्ध थे और अपनी शक्ति द्वारा बड़े-बड़े असंभव समझे जाने वाले कामों को भी कर सकते थे।
गोरखनाथ का समय खोज करने वाले विद्वानों के-विक्रम संवत् 1100 के लगभग माना है। कहा जाता है कि एक बार उनके भावी गुरु मत्स्येन्द्रनाथ फिरते-फिरते अयोध्या के पास “जयश्री” नाम के नगर में पहुँचे। वहाँ एक ब्राह्मणी के घर जाकर भिक्षा माँगी ओर उसने बड़े आदर सम्मान से उनको भिक्षा दी। ब्राह्मणी का भक्तिभाव देखकर मत्स्येन्द्र नाथ बड़े प्रसन्न हुये और उसके चेहरे पर उदासीनता का चिह्न देखकर कारण पूछने लगे। ब्राह्मणी ने बतलाया कि उसके कोई सन्तान नहीं है, इसी से वह उदासीन रहती हैं। यह सुन योगीराज ने अपनी झोली से जरा-सी भभूत निकाली और उसे देकर कहा कि “इसको खा लेना, तेरे पुत्र हो जायेगा।" उनके चले जाने पर उसने इस बात की चर्चा एक पड़ोसिन से कीं। पड़ोसिन ने कहा “कहीं इसके खाने से कोई नुकसान न हो जाय?" इस बात से डरकर भभूत नहीं खाई ओर गोओं के बाँधने के स्थान के निकट एक गोबर के गड्ढे में उसे फेंक दिया।
इस बात को बारह वर्ष बीत गए ओर एक दिन मत्स्येन्द्रनाथ फेरी लगाते उस ब्राह्मणी के यहाँ पहुँचे। उन्होंने उसके द्वार पर ‘अलख’ जगाया। जब ब्राह्मणी बाहर आई तो उन्होंने पूछा-अब तो तेरा पुत्र 12 वर्ष का हो गया होगा, देखूँ तो वह कैसा हे यह सुनकर वह स्त्री घबड़ा गई और डर कर उसने समस्त घटना उनको सुना दी। मत्स्येन्द्रनाथ ने भभूत को फेंकने का स्थान पूछा ओर वहाँ जाकर “अलख” की ध्वनि की। उसे सुनते ही एक बारह वर्ष का तेजपुत्र बालक बाहर निकल आया ओर उसने योगीराज के चरणों में मस्तक नवाया। यही बालक आगे चलकर “गोरखनाथ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ ने उसे शिष्य बना कर योग की पूरी शिक्षा दी। गोरखनाथ ने गुरु की शिक्षा से और स्वानुभव से भी योग-मार्ग में बहुत अधिक उन्नति की और उसमें हर प्रकार से पारंगत हो गए। लोगों की तो धारणा है कि योग की सिद्धि के प्रभाव से उन्होंने “अमर स्थिति” प्राप्त की थी और आज भी वे कभी किसी भाग्यशाली को दर्शन दे जाते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि गोरखनाथ ने भारतीय संस्कृति के संरक्षण में बहुत अधिक सहयोग दिया है और शंकराचार्य और तुलसीदास के मध्यकाल में इतना प्रभावशाली और महिमान्वित व्यक्ति भारत वर्ष में, कोई नहीं हुआ था। उनके विषय में गोरक्ष-विजय ग्रन्थ में लिखा है-
ए बलिया जतिनाथ आसन वरिल।
लंग महालंग दुई संहति लाईल ॥
आसन करिया नाथ शून्ये केल भरा
साचन उड़अ जेन गगन ऊपर
आडे-आडे चहे नाथ शून्धे भर करि।
“गोरखनाथ योगासन लगाकर आकाश मार्ग में पहुँच गए और बाज़ की तरह उड़ते हुए एक देश से दूसरे देश को जाने लगे।”
बंगाल के राजा गोपीचन्द की माता मथनावती गोरखनाथ की शिष्या थी और योग साधन तथा तपस्या द्वारा महान् ज्ञान की अधिकारिणी बन गई थी। उसने अपनी विद्या के बल से देखा कि उसके पुत्र के भाग्य में थोड़ी ही अवस्था लिखी है और वह उन्नीस वर्ष की अवस्था में ही मर जायेगा। इससे बचने का एक मात्र उपाय है कि वह किसी महान् योगी से दीक्षा लेकर योग साधन करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करे। इस लिये उसने जालंघरनाथ से गोपी चन्द को योग-मार्ग का शिक्षा दिला कर इसे उस कोटि का योगी बनाया।
गोरखनाथ योग-विद्या के आचार्य थे। वर्तमान समय में जो हठ योग विशेष रूप से प्रचलित है उसका उन्होंने अपने अनुयायियों में बहुत प्रचार किया और उनके लिए गुप्त शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का मार्ग खोल दिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने गोरख-संहिता “गोरख विजय “ अम-राधे शासन” “ काया बोध” आदि बहुत से ग्रंथ रचे थे जिनमें से कुछ अब भी प्राप्त है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अगर तुम शरीर ओर मन पर अधिकार प्राप्त करना चाहते हो तो इसका एक मात्र यही मार्ग हैं। यदि मनुष्य सोचे कि वह धन सम्पत्ति द्वारा समस्त अभिलाषाओं को पूरा कर लेगा अथवा जड़ी-बूटी रसायनों की सहायता से शरीर को सुरक्षित रख सकेगा तो यह उसका भ्रम है-
सोनै रुपै सीझै काल।
तौ कत राजा छाँड़े राज-जड़ी-बूटी भूले मत कोई।
पहली राँड वैद की होई॥
अमर होने का उपायनों योग का पंथ ही है जिसमें अमृत प्राप्त करने का मार्ग बतलाया गया है-
गगन मंडल में औंधा कुँवा,
तहाँ अमृत का वासा।
सगुरा होइ सुभर-भर पीया,
निगुरा जाय पियासा॥
शून्य गगन अथवा मनुष्य के ब्रह्म रंध्र में औंधे मुँह का अमृत कूप है, जिसमें से बराबर अमृत निकलता रहता है। जो व्यक्ति सतगुरु के उपदेश से इस अमृत का उपयोग करना जान लेता है वह अक्षरामर हो जाता है, और जो बिना गुरु से विधि सीखे केवल मन के लड्डू खाया करता है, उसका अमृत सूर्य तत्व द्वारा सोख लिया जाता है और वह साधारण मनुष्य की तरह आधि-व्याधि का ही शिकार बना रहता है। योग द्वारा इस अमृत को प्राप्त करने का सर्व प्रथम उपाय ब्रह्मचर्य-साधन या वीर्य-रक्षा (बिन्दु की साधना) है -
व्यंदहि जोग, व्यंद ही भोग।
व्यंदहि हरै जे चौंसठि रोग॥
या व्यंद का कोई जाणै भेव।
से आपै करता आपै देव॥
बिन्दु (वीर्य) का रहस्य समझकर उसकी पूर्ण रूप से रक्षा करने पर मनुष्य सर्व शक्तिशाली और देव स्वरूप बन जाता है। इस प्रकार का साधन कर लेने से मनुष्य स्वयं शक्ति और शिव स्वरूप हो जाता है, और उसे तीनों लोक का ज्ञान प्राप्त हो जाता है-
यहु मन सकती यहु मन सीव।
यहु मन पंच तत्व का क्षीव॥
यहु मन लै जो उन्मन रहै।
तौ तीनों लोक की बाथैं कहै॥
गोरखनाथ का मत समन्वयवादी है। वे स्वयं बाल योगी थे और यह भी कहते थे कि जो वास्तव में योग में सिद्धि प्राप्त करना चाहता है उसे युवावस्था में ही कामदेव को वश करना चाहिये। पर वह अन्य कितने साधना-मार्गों की तरह शरीर को अनावश्यक कष्ट देने, दिखावटी तपस्या करने के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था-
देव-कला ते संजाम रहिबा-भूत-काल आहार।
मन पवन ले उनमन धरिया।
ते जोगी ततसारं॥
“साधक को देव-कला (आध्यात्मिक मार्ग) पर चल कर आत्म शक्ति प्राप्त करनी चाहिये और भूत-कला पार्थिव-विधि से आहार की व्यवस्था करनी चाहिये ऐसा करने पर ही वह योगाभ्यास में सफलता प्राप्त कर सकेगा।” इस प्रकार साधना मार्ग में अग्रसर होते रहने पर अंग में साधक “निष्पत्ति” अवस्था में पहुँच जाता है, जिससे उसकी समदृष्टि की जाती है, राग द्वेष का अन्त हो जाता है, साँसारिक माया-मोह सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वह काल से भी छूट कर जीवनमुक्त हो जाता है-
निसपति जोगी जाणिवा कैसा।
अगनी पाणी लोहा जैसा॥
राजा परजा सम कर देख।
तब जानिवा जोगी निसपति का भैख॥
गोरखनाथ की अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी अनेक बाते प्राप्त होती हैं जिनकी भाषा काल-के साथ बहुत बदल गई है। उनमें से कुछ कबीर की उलटवांसियों की तरह हैं। यहाँ पर उनमें से कुछ ही नमूने के तौर पर दी जा रही हैं।
वाणी वाणी रे मेरे सत गुरु की वाणी,
जोती परणवी बापे मुआ घर आनी॥1॥
खीला दूझे रे मारे भैस विलौवै।
सासुजी परण श्री बहु झुलावै॥2॥
खेत पक्यौ तो रखवाण कूँ बाँधौ॥3॥
नीचे हाँड़ी ऊपर चूल्हौ चढियों।
जल में की मछली बगुलाकू निगालियो॥4॥
आभ परसे रे जीम बरसे।
नेवानाँ नीर मोभेज चड़शे॥5॥
बाबा बोल्या रे मछन्दर को पूत।
छाँड़ी ममता औ भयो अवधूत॥6॥
अर्थात् “सतगुरु कहते हैं कि गोरखनाथ जब माया रूपिणी नारी के संपर्क में आया तब वह जीवित थी, पर उसने माया को वशीभूत करके उसे मृत (नष्ट) कर दिया॥ 2॥ पहले तो माया रूपी भैंस संसारी सुख रूप दूध देती थी, जिससे उसका मान होता था। पर जब साधना द्वारा उसका आवरण अलग कर दिया तो उलटी स्थिति हो गई । तब भैंस को बाँध रखने वाला खोला (खूँटा) तो अपार्थिव आनन्द रूपी दूध देने लगा और माया रूपी भैंस ज्ञान की दासी बनकर उस दूध को बिलोने लगी जिसके द्वारा ब्रह्मानन्द रूपी मक्खन प्राप्त हुआ। माया सास है और मानवीय इच्छा बहु है। यही इच्छा माया का पालन करती है (अर्थात् उसे पालने में झुलाती है)॥ 2॥ मनुष्य के काया रूपी खेत में साधन रूपी खेती की जाती है और परिवक हो जाती है तब वह अहंकार को खा जाती है (नष्ट कर देती है)। इसी प्रकार काम-क्रोध रूपी पारधी (शिकारी) पहले मन शिकार करता रहता है अर्थात् उससे इच्छानुसार अनुचित कार्य कराता है। पर जब मन जागृत हो जाता है, साधना में सफलता प्राप्त कर लेता वह उल्टा इस शिकारी को ही बाँध लेता है॥ 3॥ पहले कुंडलिनी शक्ति रूप हाँडी नीचे (नाभिकमल) में सुप्त अवस्था में पड़ी थी, पर जब वह जागृत होकर चैतन्य हो गई तो ऊपर चढ़ती गई। पहले मन रूपी मछली को माया रूपी बगला खाता रहता था, जब मन अपने स्वरूप को समझ कर सावधान हो गया तो वह उल्टा माया को ही निगलने लग गया॥4॥ आरम्भ में मिथ्या जगत रूपी आकाश क्षणिक आनन्द की वर्षा करता था, पर जब (परब्रह्म का) ज्ञान हृदय रूपी धरती पर जागृत हुआ तो भूमि तो वर्षा करने लगी और आत्मा स्पर्श करने लगा, इस प्रकार यह जल ऊपर की तरफ चढ़ने लगा। इसका आशय यह कि पहले माया का प्रभाव अधोगामी था पर कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने से साधना उध्र्वगामी होने लग गई॥5॥ मत्स्येन्द्रनाथ नाथ का पुत्र (शिष्य) गोरखनाथ कहता है कि अब में ममता माया-मोह को त्याग कर अवधूत हो गया हूँ

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