Friday 30 September 2016

// // Leave a Comment

129 NATH SAMAJ KE BARE ME

ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त १२९ में नाथ के बारे में कहा गया है कि -



को अद्धावेदः कः इह, प्रवोचस्कतु आजातकुत इयं वि सृष्टि ।
आवीग्देवा अस्य विसर्जने नाथा, को वेदयत आवाभूय शंभूयति ।।
अर्थात् – यह सृष्टि कहाँ से हुई ? इस तत्त्व को कौन जानता है ? किसके द्वारा हुई ? क्यों हुई ? कब से हुई ? इत्यादि विषय के समाधानकर्ता व पथ-दृष्टा नाथ ही हैं ।
इस प्रकार प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में ‘नाथ’ का प्रयोग सृष्टिकर्ता, ज्ञाता तथा सृष्टि के निमित्त रुप में मिलता है । ‘अथर्ववेद’ में भी ‘नाथ’ एवं ‘नाथित’ शब्दों का प्रयोग मिलता है ।
नाथ सम्प्रदाय के विश्वकोष ‘गोरक्ष-सिद्धान्त-संग्रह′ में उद्धृत ‘राजगुह्य’ एवं शक्ति संगम तंत्र’ ग्रन्थों में नाथ शब्द की व्याख्या दी गई हैं । ‘राज-गुह्य’ के अनुसार ‘नाथ’ शब्द में ‘ना’ का अर्थ है – ‘अनादि रुप’ और ‘थ’ का अर्थ है - ‘(भुवन त्रय) का स्थापित होना’ ।
नाकारोऽनादि रपं थकारः स्थापते सदा ।
भुवन-त्रयमेवैकः श्री गोरक्ष नमोऽस्तुते ।।
इस कारण नाथ सम्प्रदाय का स्पष्टार्थ वह अनादि धर्म है, जो भुवन-त्रय की स्थिति का कारण है । श्री गोरक्ष को इसी कारण से ‘नाथ’ कहा जाता है । ‘शक्ति-संगम-तंत्र’ के अनुसार ‘ना’ शब्द का अर्थ - ‘नाथ ब्रह्म जो मोक्ष-दान में दक्ष है, उनका ज्ञान कराना हैं’ तथा ‘थ’ का अर्थ है – ‘ज्ञान के सामर्थ्य को स्थगित करने वाला’ -
श्री मोक्षदान दक्षत्वान् नाथ-ब्रह्मानुबोधनात् ।
स्थगिताज्ञान विभवात श्रीनाथ इति गीयते ।।
चूंकि नाथ के आश्रयण से इस नाथ ब्रह्म का साक्षात्कार होता है और अज्ञान की वृद्धि स्थगित होती है, इसी कारण नाथ शब्द व्यवहृत किया जाता है ।
संस्कृत टीकाकार मुनिदत्त ने ‘नाथ’ शब्द को ‘सतगुरु’ के अर्थ में ग्रहण किया है । ‘गोरखबाणी’ में सम्पादित रचनाओं में नाथ शब्द दो अर्थों में व्यवहृत हैं । (१) रचयिता के रुप में तथा (२) परम तत्त्व के रुप में । ‘गोरक्ष-सिद्धान्त-संग्रह′ ग्रन्थ के प्रथम श्लोक में सगुण और निर्गुण की एकता को ‘नाथ’ कहा गया है -
निर्गुणवामभागे च सव्यभागे उद्भुता निजा ।
मध्यभागे स्वयं पूर्णस्तस्मै नाथाय ते नमः ।।
नेपाल के योगीराज नरहरिनाथ शास्त्री के अनुसार ‘नाथ’ शब्द पद ईश्वर वाचक एवं ब्रह्म वाचक है । ईश्वर की विभूतियाँ जिस रुप में भी जगत में विद्यमान हैं, प्रायः सब नाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं । जैसे – आदिनाथ, पशुपतिनाथ, गोरक्षनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गणनाथ, सोमनाथ, नागनाथ, वैद्यनाथ, विश्वनाथ, जगन्नाथ, रामनाथ, द्वारकानाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरनाथ, एकलिंगनाथ, पण्डरीनाथ, जालंधरनाथ आदि असंख्य देवता हैं । उनकी पावन स्मृति लेकर नाथ समाज (नाथ सम्प्रदाय) ‘नाथान्त’ नाम रखता है ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी की भावना रखी जाती है । नाथ सम्प्रदाय के सदस्य उपनाम जो भी लगते हों, किन्तु मूल आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, अचलनाथ, कंथड़िनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, जलंधरनाथ आदि नवनाथ चौरासी सिद्ध तथा अनन्त कोटि सिद्धों को अपने आदर्श पूर्वजों के रुप में मानते हैं । मूल नवनाथों से चौरासी सिद्ध हुए हैं और चौरासी सिद्धों से अनन्त कोटि सिद्ध हुए । एक ही ‘अभय-पंथ’ के बारह पंथ तथा अठारह पंथ हुए । एक ही निरंजन गोत्र के अनेक गोत्र हुए । अन्त में सब एक ही नाथ ब्रह्म में लीन होते हैं । सारी सृष्टि नाथब्रह्म से उत्पन्न होती है । नाथ ब्रह्म में स्थित होती हैं तथा नाथ ब्रह्म में ही लीन होती है । इस तत्त्व को जानकर शान्त भाव से ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए ।

0 comments:

Post a Comment